करेंट अफेयर्स – 30 अगस्त, 2020

एक समान मतदाता सूची: अवधारणा और महत्त्व

प्रिलिम्स के लिये निर्वाचन आयोग, राज्य निर्वाचन आयोग, संबंधित कानूनी प्रावधान मेन्स के लिये एक समान मतदाता सूची की अवधारणा और इसका महत्त्व

 

चर्चा में क्यों?

प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) ने बीते दिनों पंचायत, नगरपालिका, राज्य विधानसभा और लोकसभा के चुनावों के लिये एक आम मतदाता सूची की संभावना पर चर्चा करने के लिये भारत निर्वाचन आयोग और विधि एवं न्‍याय मंत्रालय के प्रतिनिधियों के साथ बैठक की थी।

प्रमुख बिंदु:

  • ध्यातव्य है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई अवसरों पर पंचायत, नगरपालिका, राज्य विधानसभा और लोकसभा के चुनावों के लिये एक आम मतदाता सूची बनाने के विचार को प्रकट चुके हैं।
  • सभी प्रकार के चुनावों के लिये एक आम मतदाता सूची बनाने के विचार को ‘एक देश-एक चुनाव’ की अवधारणा से भी जोड़ कर देखा जा रहा है।

राज्यों में अलग-अलग मतदाता सूची

  • देश के कई राज्यों में, पंचायत और नगरपालिका चुनावों के लिये जिस मतदाता सूची का प्रयोग किया जाता है वह संसद और विधानसभा चुनावों के लिये उपयोग की जाने वाली सूची से भिन्न है।
  • इस प्रकार के अंतर का मुख्य कारण यह है कि हमारे देश में चुनावों की देखरेख और उसके संचालन की ज़िम्मेदारी दो स्वतंत्र संवैधानिक प्राधिकारियों, भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India-ECI) और राज्य निर्वाचन आयोग (State Election Commission-SEC), को दी गई है।
    • वर्ष 1950 में गठित भारत निर्वाचन आयोग (ECI) को संविधान के तहत मुख्य तौर पर लोकसभा, राज्यसभा, राज्य विधानसभाओं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव संपन्न कराने की ज़िम्मेदारी दी गई है।
    • वहीं दूसरी ओर राज्य निर्वाचन आयोग (SECs) को राज्य/संघशासित क्षेत्र के निगम, नगरपालिकाओं, ज़िला परिषदों, ज़िला पंचायतों, पंचायत समितियों, ग्राम पंचायतों तथा अन्य स्थानीय निकायों के चुनावों के संचालन का उत्तरदायित्त्व दिया गया है।
  • विदित हो कि राज्य निर्वाचन आयोग (SECs) को स्थानीय निकाय चुनावों के लिये अलग निर्वाचन नामावली तैयार करने की स्वतंत्रता है और उनके लिये स्थानीय स्तर के चुनाव आयोजित कराने हेतु निर्वाचन आयोग (ECI) के साथ समन्वय करना अनिवार्य नहीं है।

 

सभी राज्यों के पास नहीं है अलग सूची

  • प्रत्येक राज्य, राज्य निर्वाचन आयोग (SECs) संबंधित राज्य के नियमों द्वारा शासित किया जाता है, ऐसे में कुछ राज्य अपने राज्य निर्वाचन आयोग को स्थानीय चुनाव के लिये निर्वाचन आयोग (ECI) द्वारा तैयार की गई मतदाता सूची का उपयोग करने की स्वतंत्रता देते हैं, जबकि कुछ राज्यों में निर्वाचन आयोग (ECI) की मतदाता सूची को केवल आधार के तौर पर प्रयोग किया जाता है।
  • वर्तमान में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, ओडिशा, असम, मध्य प्रदेश, केरल, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेश स्थानीय निकाय के चुनावों के लिये चुनाव आयोग (ECI) की मतदाता सूची का प्रयोग करते हैं।

 

एक आम मतदाता सूची का महत्त्व

  • सभी प्रकार के चुनावों के लिये एक आम मतदाता सूची के निर्माण का समर्थन करने वालों का मत है कि इसके माध्यम से ‘एक देश-एक चुनाव’ की अवधारणा को मूर्त रूप दिया जा सकेगा, जिससे अलग-अलग मतदाता सूची के निर्माण में आने वाले व्यय को कम किया जा सकेगा।
    • प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि दो अलग-अलग संस्थाओं द्वारा तैयार की जाने वाली अलग-अलग मतदाता सूचियों के निर्माण में काफी अधिक दोहराव होता है, जिससे मानवीय प्रयास और व्यय भी दोगुने हो जाते हैं, जबकि एक मतदाता सूची के माध्यम से इसे कम किया जा सकता है।
  • इसके अलावा, अलग-अलग मतदाता सूची होने से मतदाताओं के बीच भ्रम की स्थिति पैदा होती है, क्योंकि कई बार एक मतदाता सूची में व्यक्ति का नाम मौजूद होता है, जबकि दूसरे में नहीं।
  • ध्यातव्य है कि देश में सभी प्रकार के चुनावों को लिये एक ही मतदाता सूची बनाने का विचार नया नहीं है। विधि आयोग ने वर्ष 2015 में अपनी 255वीं रिपोर्ट में इसकी सिफारिश की थी।
    • इसके अलावा भारत निर्वाचन आयोग (ECI) ने भी वर्ष 1999 और वर्ष 2004 में इसी तरह का विचार प्रकार किया था।

 

कैसे लागू होगा नियम

  • पूरे देश में एक मतदाता सूची बनाने के विचार को मुख्यतः दो तरीके से पूरा किया जा सकता है, पहला विकल्प यह है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243K और 243ZA में संशोधन करके देश के सभी चुनावों के लिये एक समान मतदाता सूची को अनिवार्य किया जा सकता है।
    • अनुच्छेद 243K और 243ZA राज्यों में पंचायतों और नगरपालिकाओं के चुनाव से संबंधित हैं। ये नियम राज्य निर्वाचन आयोग (SEC) को मतदाता सूची तैयार करने और स्थानीय निकायों के चुनावों का संचालन करने का अधिकार देता है।
    • वहीं संविधान का दूसरी ओर, संविधान का अनुच्छेद 324 (1) चुनाव आयोग को संसद और राज्य विधानसभाओं के सभी चुनावों के लिये निर्वाचक नामावली की निगरानी, ​​निर्देशन और नियंत्रण का अधिकार देता है।
  • दूसरा विकल्प यह है कि निर्वाचन आयोग (ECI) या भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों को अपने कानूनों में संशोधन करने और नगरपालिका तथा पंचायत चुनावों के लिये निर्वाचन आयोग (ECI) की मतदाता सूची को अपनाने के लिये राज़ी किया जाए।

 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

 

अल्पसंख्यकों का निर्धारण:

प्रीलिम्स के लिये: राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग, टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन मामला मेन्स के लिये: अल्पसंख्यकों का निर्धारण

 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान अधिनियम’ (National Commission for Minority Education Institution Act- NCMEIA), 2004 के प्रावधानों को चुनौती देने वाली एक जनहित याचिका पर केंद्र से जवाब मांगा है।

प्रमुख बिंदु:

  • याचिका में तर्क दिया गया है कि ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान अधिनियम’ (NCMEIA) केवल राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान करता है, राज्य स्तर पर नहीं, इसलिये यह अधिनियम अल्पसंख्यकों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित करता है।

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग

(National Commission for Minority Educational Institutions- NCMEI):

  • संरचना:
    • NCMEI की स्थापना ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग अधिनियम’- 2004 के माध्यम से की गई थी।
    • आयोग एक अर्द्ध-न्यायिक निकाय है, जिसे ‘नागरिक न्यायालय’ (Civil Court) की शक्तियाँ प्राप्त हैं।
    • आयोग में एक अध्यक्ष (उच्च न्यायालय का न्यायाधीश) और तीन सदस्य होते हैं जिनकी नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है।
  • उद्देश्य:
    • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-30 में अल्पसंख्यकों के अधिकारों का संरक्षण किया गया है।
      • अनुच्छेद- 30 के अनुसार, सभी अल्पसंख्यकों, चाहे वे धर्म या भाषा पर आधारित हों, उन्हें अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा।
    • आयोग इस संबंध में अल्पसंख्यकों के अधिकारों के कमी या उल्लंघन के बारे में शिकायतों का निपटान करता है।
  • भूमिका:
    • आयोग को तीन प्रकार; सहायक कार्य, सलाहकार कार्य तथा सिफारिश करने, की शक्तियाँ प्राप्त हैं।

 

NCMEIA के तहत अल्पसंख्यक:

  • अधिनियम की धारा 2 (f) के अनुसार, अल्पसंख्यक वह है जिसे केंद्र सरकार द्वारा इस उद्देश्य के लिये अल्पसंख्यक से रूप में अधिसूचित किया है।
  • केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन समुदाय को अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित किया गया है।
  • यह अधिनियम अल्पसंख्यकों के निर्धारण में राज्य सरकारों को कोई अधिकार नहीं देता है।

 

राज्य स्तरीय अल्पसंख्यक निर्धारण की आवश्यकता:

टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन मामला:

  • केवल राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यकों की पहचान करना, ‘टी.एम.ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य’ (2002) मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय की भावना के खिलाफ है।
  • यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अल्पसंख्यक वर्ग की पहचान हेतु दो आधार अर्थात राष्ट्रीय व प्रांतीय बताए गए थे।

राज्य स्तर बहुलवादी भी अल्पसंख्यक:

  • हिंदू , यहूदी धर्म का पालन करने वाले लोग अनेक राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों यथा- लद्दाख, मिज़ोरम, लक्षद्वीप, कश्मीर, नगालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, मणिपुर जैसे क्षेत्रों में अल्पसंख्यक के रूप में हैं।
  • वे इन राज्यों में अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन नहीं कर सकते हैं।

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