The Kingdom of Mewar: History of Rajasthan: Mewar was founded by Bappa Rawal, a member of the Guhila Rajput Clan and was formerly a chieftain of the Mori king of Chittor, who acquired control of Chittor in c. 728. Nagda was the first capital of Mewar and continued to be so until c. 948 when the ruler Allat moved the capital from Nagda, Rajasthan to Ahar.
The Kingdom of Mewar: History of Rajasthan
- Several fellows consider that only Udaipur city is Mewar, but there were also other cities from various states that emerged in the history of Mewar Kingdom.
- The Mewar region comprised of Bhilwara, Rajsamand, Chittorgarh, Udaipur and Pirawa (Jhalawar District) from Rajasthan; Mandsaur and Neemuch from Madhya Pradesh; and some parts of Gujarat.
Reigns and Kings of Mewar
- Before Udaipur became the capital in the Mewar history, Chittor which is now referred as ‘Chittorgarh’ was the capital of Mewar.
- Listed below are the names of the rulers and their reigns in the Mewar kingdom categorized in two categories: Mewar Kingdom with Chittor Capital & Mewar Kingdom with Udaipur Capital.
Mewar Kingdom with Chittor Capital
1 | Maharana Hamir Singh I | 1326 | 1364 |
2 | Maharana Kheta | 1364 | 1382 |
3 | Maharana Lakha | 1382 | 1421 |
4 | Maharana Mokal | 1421 | 1433 |
5 | Maharana Kumbha | 1433 | 1468 |
6 | Maharana Udai Singh I | 1468 | 1473 |
7 | Maharana Rai Mal | 1473 | 1509 |
8 | Maharana Sangram Singh I Rana Sanga | 1509 | 1528 |
9 | Maharana Ratan Singh II | 1531 | |
10 | Maharana Vikramaditya Singh | 1531 | 1537 |
11 | Maharana Vanvir Singh | 1537 | 1540 |
Mewar Kingdom with Udaipur Capital
1 | Maharana Udai Singh II | 1568 | 1572 |
2 | Maharana Pratap Singh I | 1572 | 1597 |
3 | Maharana Amar Singh I | 1597 | 1620 |
4 | Maharana Karan Singh II | 1620 | 1628 |
5 | Maharana Jagat Singh I | 1628 | 1652 |
6 | Maharana Raj Singh I | 1652 | 1680 |
7 | Maharana Jai Singh | 1680 | 1698 |
8 | Maharana Amar Singh II | 1698 | 1710 |
9 | Maharana Sangram Singh II | 1710 | 1734 |
10 | Maharana Jagat Singh II | 1734 | 1751 |
11 | Maharana Pratap Singh II | 1751 | 1754 |
12 | Maharana Raj Singh II | 1754 | 1761 |
13 | Maharana Ari Singh II | 1761 | 1773 |
14 | Maharana Hamir Singh II | 1773 | 1778 |
15 | Maharana Bhim Singh | 1778 | 1828 |
16 | Maharana Jawan Singh | 1828 | 1838 |
17 | Maharana Sardar Singh | 1838 | 1842 |
18 | Maharana Swarup Singh | 1842 | 1861 |
19 | Maharana Shambhu Singh | 1861 | 1874 |
20 | Maharana Sajjan Singh | 1874 | 1884 |
21 | Maharana Fateh Singh | 1884 | 1930 |
22 | Maharana Bhupal Singh | 1930 | 1956 |
23 | Maharana Bhagwat Singh | 1956 | 1984 |
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राजस्थान का मेवाड़ राज्य पराक्रमी गहलौतों की भूमि रहा है, जिनका अपना एक इतिहास है। इनके रीति-रिवाज तथा इतिहास का यह स्वर्णिम ख़ज़ाना अपनी मातृभूमि, धर्म तथा संस्कृति व रक्षा के लिए किये गये गहलौतों के पराक्रम की याद दिलाता है। स्वाभाविक रूप से यह इस धरती की ख़ास विशेषताओं, लोगों की जीवन पद्धति तथा उनके आर्थिक तथा सामाजिक दशा से प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता रहा है। शक्ति व समृद्धि के प्रारंभिक दिनों में मेवाड़ सीमाएँ उत्तर-पूर्व के तरफ़ बयाना, दक्षिण में रेवाकंठ तथा मणिकंठ, पश्चिम में पालनपुर तथा दक्षिण-पश्चिम में मालवा को छूती थी।
राजपूत शासन
मेवाड़ में काफ़ी लम्बे समय राजपूतों का शासन रहा था। बाद के समय में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भी यहाँ लूटपाट की। ख़िलजी वंश के अलाउद्दीन ख़िलजी ने 1303 ई. में मेवाड़ के गहलौत शासक रतन सिंह को पराजित करके इसे दिल्ली सल्तनत में मिला लिया था। गहलौत वंश की एक अन्य शाखा ‘सिसोदिया वंश’ के हम्मीरदेव ने मुहम्मद तुग़लक के समय में चित्तौड़ को जीत कर पूरे मेवाड़ को स्वतंत्र करा लिया। 1378 ई. में हम्मीरदेव की मृत्यु के बाद उसका पुत्र क्षेत्रसिंह (1378-1405 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा।
क्षेत्रसिंह के बाद उसका पुत्र लक्खासिंह 1405 ई. में सिंहासन पर बैठा। लक्खासिंह की मृत्यु के बाद 1418 ई. में इसका पुत्र मोकल राजा हुआ। मोकल ने कविराज बानी विलास और योगेश्वर नामक विद्वानों को आश्रय अपने राज्य में आश्रय प्रदान किया था। उसके शासन काल में माना, फन्ना और विशाल नामक प्रसिद्ध शिल्पकार आश्रय पाये हुये थे। मोकल ने अनेक मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया तथा एकलिंग मंदिर के चारों तरफ़ परकोटे का भी निर्माण कराया।
गुजरात शासक के विरुद्ध किये गये एक अभियान के समय उसकी हत्या कर दी गयी। 1431 ई. में मोकल की मृत्यु के बाद राणा कुम्भा मेवाड़ के राज सिंहासन पर बैठा। राणा कुम्भा तथा राणा सांगा के समय राज्य की शक्ति उत्कर्ष पर थी, लेकिन लगातार होते रहे बाहरी आक्रमणों के कारण राज्य विस्तार में क्षेत्र की सीमा बदलती रही। अम्बाजी नाम के एक मराठा सरदार ने अकेले ही मेवाड़ से क़रीब दो करोड़ रुपये वसूले थे।
1473 ई. में उसकी हत्या उसके पुत्र उदयसिंह ने कर दी। राजपूत सरदारों के विरोध के कारण उदयसिंह अधिक दिनों तक सत्ता-सुख नहीं भोग सका। उसके बाद उसका छोटा भाई राजमल (शासनकाल 1473 से 1509 ई.) गद्दी पर बैठा। 36 वर्ष के सफल शासन काल के बाद 1509 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र राणा संग्राम सिंह या ‘राणा साँगा’ (शासनकाल 1509 से 1528 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने अपने शासन काल में दिल्ली, मालवा, गुजरात के विरुद्ध अभियान किया।
1527 ई. में खानवा के युद्ध में वह मुग़ल बादशाह बाबर द्वारा पराजित कर दिया गया। इसके बाद शक्तिशाली शासन के अभाव में जहाँगीर ने इसे मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया। मेवाड़ की स्थापना राठौर वंशी शासक चुन्द ने की थी। जोधपुर की स्थापना चुन्द के पुत्र जोधा ने की थी।
राणा कुम्भा
राणा कुम्भा के मेवाड़ में शासन काल के दौरान उसका एक रिश्तेदार रानमल काफ़ी शक्तिशाली हो गया था। रानमल से ईर्ष्या करने वाले कुछ राजपूत सरदारों ने उसकी हत्या कर दी। राणा कुम्भा ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी मालवा के शासक हुसंगशाह को परास्त कर 1448 ई. में चित्तौड़ में एक ‘कीर्ति स्तम्भ’ की स्थापना की। स्थापत्य कला के क्षेत्र में उसकी अन्य उपलब्धियों में मेवाड़ में निर्मित 84 क़िलों में से 32 क़िले हैं, जिसे राणा कुम्भा ने बनवाया था। मध्य युग के शासकों में राणा कुम्भा एक महान् शासक था। वह स्वयं विद्वान् तथा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, राजनीति और साहित्य का ज्ञाता था।
हल्दीघाटी का युद्ध
अकबर ने सन् 1624 में मेवाड़ पर आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया, पर राणा उदयसिंह ने उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की थी और प्राचीन आधाटपुर के पास उदयपुर नामक अपनी राजधानी बसाकर वहाँ चला गया था। उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी युद्ध जारी रखा और अधीनता नहीं मानी थी। उनका हल्दीघाटी का युद्ध इतिहास प्रसिद्ध है। इस युद्ध के बाद प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी। अकबर ने कुम्भलमेर दुर्ग से भी प्रताप को खदेड़ दिया तथा मेवाड़ पर अनेक आक्रमण करवाये थे पर प्रताप ने अधीनता स्वीकार नहीं की थी। अंत में सन् 1642 के बाद अकबर का ध्यान दूसरे कामों में लगे रहने के कारण प्रताप ने अपने स्थानों पर फिर अधिकार कर लिया था। सन् 1654 में चावंड में उनकी मृत्यु हो गई थी।
मुग़ल आधिपत्य
महाराणा प्रताप के बाद उसके पुत्र राणा अमरसिंह ने भी उसी प्रकार वीरतापूर्वक मुग़लों का प्रतिरोध किया पर अंत में उसने शाहजहाँ ख़ुर्रम के द्वारा सम्राट जहाँगीर से सन्धि कर ली। उसने अपने राजकुमार को मुग़ल दरबार में भेज दिया पर स्वयं महाराणा ने, अन्य राजाओं की तरह दरबार में जाना स्वीकार नहीं किया था। महाराणा स 1617 में मृत्यु को प्राप्त हुआ था। महाराणा कर्णसिंह ने कभी शाहजादा ख़ुर्रम को पिछोला झील में बने जगमन्दिर नामक महल में रखा था। महाराणा का भाई भीम शाहजादे की सेवा में रहा था, जिसे उसने बादशाह बनने के बाद टोडा (टोडाभीम) की जागीर दी। ख़ुर्रम को लाखेरी के बाद गोपालदास गौड़ ने भी मदद प्रदान की थी। बदले में महाराणा जगतसिंह ने अपने सरदारों को बादशाही दरबार में भेजा और दक्षिण के अभियान में सैनिक सहायता भी दी थी। उसका लड़का राजसिंह प्रथम भी अजमेर में बादशाह के समक्ष हाज़िर हुआ था।
महाराणा के बड़े सामंत भी बादशाही मनसबदार बन गए थे। चित्तौड़ के क़िले की मरम्मत तथा कुछ बागियों को प्रश्रय देने का बहाना कर मुग़लों ने राजसिंह पर आक्रमण किया और चित्तौड़ के क़िले की दीवारों को तोड़ डाला। इस पर एक समझौता हुआ, जिसके अनुसार महाराणा का छह वर्ष का लड़का बादशाह के पास अजमेर भेजा गया। युद्ध के समय राजसिंह ने टीकादौड़ के बहाने न केवल मेवाड़ के पुर, मांडल, बदनौर आदि को लूटा अपितु मालपुरा, टोडा, चाकसू, साम्भर, लालसोट, टोंक, सावर, खेतड़ी आदि पर हमला किया और लूटपाट की। उसने वहाँ के अनेक भूमिपतियों से बड़ी-बड़ी रकमें भी कर के रूप में ली थीं।
मराठों का प्रभाव
महाराणा ने मुग़ल शाहज़ादा दारा शिकोह का पक्ष न लेकर औरंगजेब का पक्ष लिया और उत्तराधिकार के युद्ध में उसकी विजय पर बधाई दी थी। किशनगढ़ की राजकुमारी चारूमती, जिसका विवाह औरंगजेब के साथ होना था, को भगाकर ले जाने से आपसी रंजिश भी हुई। ऐसा ही जसवंतसिंह के नवजात पुत्र अजीत सिंह को शरण देने के कारण भी हुआ। राजसिंह ने अपने लड़के जयसिंह को भी मुग़ल दरबार में भेजा। औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर लगाये गए जज़िया का विरोध भी उसने किया। मेवाड़ में व्यापक रूप से लूटपाट और तबाही मचाने वाली मुग़ल फ़ौजों से उसे संघर्ष करना पड़ा था।
1727 वि. में राजसिंह की मृत्यु हो गई। वह धर्म, कला और साहित्य का संरक्षक था। प्रसिद्ध राजसमंद का निर्माण कर वहाँ राजप्रशस्ति नामक काव्य को शिलाओं पर अंकित करवाने का श्रेय उसी को है। उसके पुत्र जयसिंह ने बहादुरशाह के समय जोधपुर तथा जयपुर के नरेशों को मेवाड़ी राजकुमारियाँ देकर राज्य प्राप्ति में उनकी सहायता की थी। महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय का काल उपद्रवों से ग्रस्त रहा था। उसके पुत्र जगतसिंह द्वितीय के समय हुरड़ा सम्मेलन हुआ, पर उसके पुत्र जगतसिंह ऐसे कामकाज के लिए सक्षम नहीं था। उसने मराठों को घूस देकर सहायता प्राप्त की, जिससे मेवाड़ पर मराठों का पंजा कसता गया और महाराणाओं को बड़ी रकमें देकर उन्हें प्रसन्न करना पड़ा था।
प्रशासनिक विभाग
मेवाड़ रियासत के प्रशासन में बहुत-से विभागों की स्थापना की गई थी। इन विभागों को ‘कारख़ाना’ कहा जाता था और कारख़ाने के प्रधान को उस कारख़ाने का ‘दारोगा’ कहा जाता था। इन कारख़ानों के नाम निम्नलिखित हैं –
मेवाड़ के विभिन्न प्रशासनिक विभाग | |
विभाग | विभाग के महत्त्वपूर्व कार्य और दायित्व |
गहने का भंडार | इस विभाग पर आभूषण तथा क़ीमती चीज़ों की ज़िम्मेदारी होती थी। |
कपड़े का भंडार | यह कपडे तथा सिले हुए वस्त्रों का मुख्य भंडार कक्ष था। |
हुकुम खर्च | यह विभाग दरबार से जुड़े खर्च, जैसे- पुरस्कार, दान आदि का हिसाब रखता था। |
पाणेरा, कामदार, अफसर वगैरा | कार्य करने वाले अधिकारियों का विभाग |
रसोड़ा खाना | महाराणा का रसोई विभाग |
बड़ा रसोड़ा, खल्ला | सामान्य रसोई विभाग |
कोठार | यह आपूर्ति विभाग था। इस विभाग के अन्तर्गत बड़े गोदाम तथा घर बने होते थे, जिसमें कम-से-कम 1000 मन अनाज, घी तथा राशन की अन्य वस्तुएँ रखी जाती थीं। |
निज सैनिक सभा या फौज का महकमा | सैनिकों का प्रधान मुख्यालय। इस विभाग का दारोगा सैनिकों का नेतृत्व करता था। |
अर्दली | आज्ञाकारी प्रहरियों का विभाग। जनानी महल के नजदीक एक ख़ास दरवाज़ा, जहाँ अर्दली बैठते थे। इसे ‘अर्दली की ड्योड़ी’ कहते हैं। |
बंदूकों की ओरी | इस विभाग में राइफ़ल तथा अन्य प्रकार के बिना बारूद वाले हथियारों को रखा जाता था। |
काड़तूसों की ओरी | विस्फोटक पदार्थ व गोलियों के छर्रे रखने वाला बारूद विभाग।[1] |
सिलेह खाना | छोटे हथियार, बन्दुक, पिस्तोल, आग्नेयास्त्र या तोपखाना शाखा वाला विभाग। |
छूरी कटार की ओरी | इस विभाग में कटार, छुरे, तलवार, बाजुबन्द तथा माले रखे जाते थे। |
फरास खाना | लोक कल्याण विभाग |
सेज की ओरी | शयनकक्ष से जुड़ी हुई वस्तुओं का विभाग |
लवाजमे का कारख़ाना | इस विभाग को वर्दी वाले नौकर चलाते थे, इस पर अंत्येष्टि कर्म से जुड़ी वस्तुएँ, राज्य चिह्न, झंडे इत्यादि की ज़िम्मेदारी होती थी। |
तखत का कारख़ाना | पालखी, तखत, तामजाम, मेणा, तबारी इत्यादि के लिए ज़िम्मेदार विभाग। |
तबेला या पायंगा | यह विभाग राजकीय सेवा में आने वाले घोड़ों के रहने की व्यवस्था करता था। |
बग्गी खाना | शाही लोगों की बग्गी आदि की सुचारु देखभाल से जुड़ा हुआ विभाग। |
हाथियों का हल्का | हाथियों के रहने की व्यवस्था से सम्बद्ध विभाग। |
जैल खाना | क़ैदखाना विभाग, जहाँ अपराधी, चोर तथा शत्रुओं आदि को बन्दी बनाकर रखा जाता था। |
छोटी जैल | राज्य के छोटे मुकदमों से जुड़ी कचहरी। |
धर्मसभा | दान, पुण्य, कर्मकांड तथा अन्य विधि विधान से जुड़ा विभाग। |
ऊँटों का कारख़ाना | सामान आदि ढोने वाले ऊँटों का विभाग। |
कबूतरारी ओरी | कबूतर, तोते, बत्तख इत्यादि उड़ने वाले पक्षियों का विभाग। |
नौबतख़ाना | संगीत के उपकरणों वाला विभाग। इसमें प्राय: प्रतिदिन बजने वाले तथा युद्ध के समय बजने वाले दोनों प्रकार के वाद्य उपकरण रखे जाते थे। |
घड़ियाल का महकमा | घड़ी तथा घंटे वाला विभाग। |
रौशनी का महकमा | सम्पूर्ण राज्य में रौशनी की व्यवस्था करने वाला विभाग। |
अलालदार | स्वच्छता सम्बन्धी विभाग। |
चतारों का कारख़ाना या तसवीरों का कारख़ाना | कलाकारों की कर्मशाला। यह महल में ही होता था, जहाँ वे छवी, विभिन्न दृश्य तथा पोथी रंगने का काम करते थे। |
महकमा ख़ास | राज्य का गृह विभाग, जो राज्य में राणा के व्यक्तिगत कार्यों की देखभाल करता था। |
महकमा हिसाब | राज्य का लेखा विभाग, जो राज्य में नक़द तथा पैसों के विनिमय सम्बन्ध की देखरेख करता था। |
बख़्शीख़ाना | रिकॉर्ड कार्यालय या अभिलेखागार विभाग, जहाँ सभी तरह के पुराने दस्तावेजों को सुरक्षित रखा जाता था। |
भूमि का वर्गीकरण
मेवाड़ में भूमि के वर्गीकरण के अंतर्गत प्रत्येक गाँव में तीन प्रकार के भू-खण्ड थे-
- आवासीय भू-खंड
- कृषित भू-खंड
- पड़त वा बंझर
आवासीय भू-खंड में आवासीय पट्टे निर्धारित किये जाते थे। इन पट्टों के अनुसार गाँव तथा उनके आवासों को दो भागों में वर्गीकृत किया जाता था- ‘कच्चे पट्टे’ और ‘पक्के पट्टे’।[3] कच्चे गाँव में कोई भी व्यक्ति कहीं भी रह सकता था, किन्तु पक्के गाँवों में उस गाँव की ग्राम पंचायत की बगैर स्वीकृति तथा नजराना दिये बिना नहीं रहा जा सकता था। पड़त भूमि दो प्रकार की होती थी-
- गोचर भूमि
- बेदख़ली भूमि
- गोचर भूमि – इस भूमि को ‘चर्णोटा’ भी कहा जाता था। इस भूमि पर गाँव अथवा कई गाँव की पंचायतों का सामूहिक अधिकार होता था। इस प्रकार की भूमि पशुओं के आहार-विहार हेतु राज से युक्त रहती थी। इसका क्रय-विक्रय करना पाप माना जाता था।
- बेदख़ली भूमि – इस प्रकार की भूमि पर कोई भी व्यक्ति कृषि करने के लिए स्वतंत्र था, किन्तु इसके लिए ग्राम पंचायत को लागत या दस्तूर देना होता था, जो बहुत कम होता था। दस्तूर देने के बाद यह दखिली भूमि की श्रेणी में आ जाती थी तथा इसे कृषित भू-खण्ड मान लिया जाता था।
भू-व्यवस्था
मेवाड़ राज्य का आर्थिक जीवन प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में भूमि-व्यवस्थाओं से बंधा हुआ था। सिक्के का प्रचलन कम होने के कारण राज्य एवं समाज की सेवार्थ भूमि वितरण की परम्परा आलोच्यकाल के पूर्व से ही चली आ रही थी। किसान तो वैसे भी भूमि उत्पादन पर आधारित अपनी जीविका चलाते थे, किन्तु भूमिहीन व्यक्ति भी यजमानी सेवाओं अथवा भूमिधारी व्यक्तियों की भू सेवाओं द्वारा जीवन निर्वाह करते थे। राज्य की संप्रभु शक्ति धारक राणा राज्याधीन संपूर्ण भूमि क्षेत्र का वैधानिक स्वामी था। वह अपने क्षेत्र विशेष में किसी भी व्यक्ति को किसी भी शर्त पर अनुदान अधिग्रहण तथा करारोपण करने का अधिकार रखता था। राणा द्वारा प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित भूमि ‘खालसा भूमि’ के रूप में जानी जाती थी। इस आरक्षित भूमि के अलावा राणा द्वारा प्रदत्त भूमि अनुदानों की दो श्रेणियाँ थीं-
- धर्मार्थ भूमि अनुदान
- धर्मेत्तर भूमि अनुदान
धर्माथ भूमि अनुदान
धार्मिक कार्यों से संबंधित अनुदानों का समाज में विशेष महत्व था। ये अनुदान दो तरह के हो सकते थे। पहला धार्मिक स्थानों, मंदिरों, मस्जिदों, देवरों एवं मठों में व्यवस्था बनाये रखने के लिए था। इस अनुदान को “षट्दर्शन” कहा जाता था। 19वी. शताब्दी में इन्हें “देवस्थानी” के नाम से जाना जाने लगा था। द्वितीय श्रेणी के धार्मिक अनुदान ब्राह्मण, चारण, भाट, संन्यासी, गुसांई और विद्वान् आदि को जीविका निर्वाह के लिए प्रदान किये जाते थे। धर्मार्थ भू अनुदान की भूमि का क्रय-विक्रय प्रायः नहीं किया जाता था। ऐसी भूमिओं पर अधिकार प्राप्ति हेतु उत्तराधिकारी द्वारा शासन से पुष्टि करना आवश्यक होता था। यद्यपि ऐसे पुष्टिकरण मात्र परंपरा निर्वाह हेतु किये जाते थे। इससे शासन को प्रत्येक नवीनीकरण पर उस भूमि की स्थिति तथा उसकी द्यृतियों का पता प्राप्त होता रहता था। द्वितीय श्रेणी की भूमि का क्रय-विक्रय अथवा बंधक रखना राणा की स्वीकृति पर निर्भर करता था।
धर्मेत्तर भूमि अनुदान
इस प्रकार की भूमि अनुदान को आलोच्यकालीन प्राप्त विवरणों के आधार पर दो मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है-
- असैनिक सेवार्थ
- सैनिक सेवार्थ
असैनिक सेवार्थ अनुदान
यह अनुदान इनाम के रूप में दिये गये अनुदान या चाकदाना नौकरी के निमित्त दिये गये अनुदान हो सकते थे। विशिष्ट सेवाओं के लिए व्यक्ति अथवा वंशानुगत दिया जाने वाला भूमि अनुदान ‘इनामियामाफी’ कहलाता था। इसके भू राज का फैसला अनुदान की इच्छा पर निर्भर था। राज्य सेवा के पारिश्रमिक हेतु दिया गया भू-अनुदान ‘चाकरानामाफी’ कहा जाता था। यह भूमि व्यक्ति द्वारा राज्य सेवा करते रहने तक प्रदान की जाती थी, अतः इस पर कोई राज नहीं लिया जाता था। सिर्फ कुछ उत्सवों व त्योहारों पर राज के अनुपात में आंशिक नज़राने लिये जाते थे। व्यावहारिकता में चूँकि मेवाड़ राज्य के अधिकतर पद वंशानुगत होते थे, इसलिए ऐसी भूमि के पुनर्ग्रहण के अवसर बहुत ही कम आते थे। चूँकि ऐसी भूमि ग्रहिता द्वारा सेवार्थ प्राप्त की जाती थी। अतः इसका विक्रय नहीं किया जा सकता था।
सैनिक सेवार्थ अनुदान
राज्य की सैनिक सेवा के लिए प्रदान की गई भूमि की मुख्यतः चार प्रकार की श्रेणियाँ थीं- ‘भूम’, ‘ग्रास’, ‘रावली’ और ‘पट्टा’।
- भूम – इस प्रकार की भूमि अधिकतर राजपूत जाति के लोगों, जिन्होंने सैनिक कार्यवाहियों में अपना सर्वस्व बलिदान कर राणा से प्रशंसा अर्जित की हो, को दी जाती थी। ऐसी भूमि पर ग्रहिता को वंशपरंपरागत अधिकार प्रदान किये जाते थे। यह भूमि राज्य के राज से मुक्त रहती थी। प्रायः राज्य के प्रत्येक प्रमुख ठिकानेदार का ठिकाना उसकी ‘भूम’ रही थी। ऐसी भूमि के क्रय-विक्रय तथा बंधक रखने पर शासन का कोई नियंत्रण नहीं था। दूसरी तरफ़ भूम-धारक भूमिया को राज्य की सैनिक सेवा के लिए सदैव तत्पर रहना पड़ता था। इसके अलावा ‘भूम-बराड़’ नामक वार्षिक किराया राज्य को जमा करना पड़ता था। कर्त्तव्यों का पालन नहीं करने पर भूमि अधिग्रहण हो सकता था। इस भूमि अनुदान के अतिरिक्त राज्य की सैनिकोत्तर सेवाओं के लिए भील आदिवासियों को भी गाँव में राजमुक्त भूमि प्रदान की जाती थी। बदले में वे गाँव की चौकीदारी तथा राज्याधिकारियों की सेवा करते थे।
- ग्रास – ऐसे अनुदान राजा द्वारा निकटतम संबंधियों को रोटी-खर्च चलाने के लिए प्रदान किया जाता था। ग्रास ग्राहिताओं से कोई राज नहीं लिया जाता था, लेकिन संकटावस्था में राज्य इनसे सैनिक सहायता प्राप्त करता था।
- रावली या जागेरी – रावली भूमि स्वयं राणा, जनानी ड्योढ़ी तथा कुँवरों के निजी खर्च चलाने हेतु प्रदान की जाती थी। संभवतः पूर्व आलोच्यकालीन राणा द्वारा स्वयं का वेतन भी भूमि द्वारा निश्चित किया जाता रहा था। उत्तर आलोच्यकाल में यह निज खर्च नक़द रूप में लिया जाने लगा था।
- रावली – इस प्रकार की भूमि भी राज से मुक्त होती थी तथा इसका विक्रय या बंधक राणा की पूर्व स्वीकृति के बिना नहीं किया जा सकता था।
- पट्टा – यह भूमि मूलतः राज्य की सैनिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए दी जाती थी। ऐसे अनुदानों में कई गाँव और परगना सम्मिलित रहते थे। ग्रहिता को क्रय-विक्रय का अधिकार तो नहीं रहता था, किन्तु वे धार्मिक पुर्न:अनुदान के लिए स्वतंत्र थे। कर्त्तव्यच्युत होने पर भूमि को राज्य द्वारा अधिग्रहित कर लिया जाता था।
The Kingdom of Mewar
The kingdom of Mewar includes present day districts of Chittorgarh, Rajsamand, Udaipur, Dungarpur, and Banswara. The region was originally called Medhpaat and Lord Shiva (Ekling Nath) is called Medhpateshwar (Lord of Medhpaat). Over time, the Name Medhpaat became Mewar.
The creators of Mewar’s ruling dynasty in Rajputana came originally from the Guhilot clan. Foundation Stories claim this clan originated in Kashmir and migrated to Gujarat in the sixth century. In the Seventh century they migrated again, to the plains of Mewar, in the area around Magda, which was named after one of the earliest clan leaders.
The Guhilot had established themselves in Mewar as early as the last quarter of the sixth century A.D. Chittor, the early seat of Guhilas, held a strategic position. Since its boundaries touched the Sultanate’s possession of Sapadalaksha, Sultanas could hardly tolerate a powerful kingdom unmolested. The contemporary of Sultan Iltutmish at the seat of Mewar was Guhila Jaitya Simha.
His dates range from 1213 to 1250, he is reported to have fought both with Sultan Iltutmish and Nasiruddin Mahmud. According to Sanskrit play Hammira-mada-mardana, Mlechchha warriors on their way to Gujarat (against King Viradhavala) entered Nagda and devastated Mewar region. The Muslim writers are silent about this campaign. It is possibly due to the failure of the campaign and the defeat of the Sultan at the hands of a petty chief as indicated in the epigraph.
Chirwa and Mt Abu inscriptions boastfully record the curbing of the pride of the Turushkas. The uninterrupted hold pf Mewar under its chiefs Jaitra Simha, Teja Simha and Samar Singh nullified an unsuccessful attack on Chittor by Sultan Ghiasuddin Balban. The Mt. Abu inscription of V.S. 1342 credits the last mentioned Guhila Chief with a victory over the Turushkas.
This obviously refers to an armed expedition of the Muslims against Gujarat in which Samar Singh Guhila probably helped the Gujarat Chief Sarangadeva and saved the Gujarat territory from a complete devastation. Although the Persian sources are silent about the event, the testimony of the inscriptions leave little doubt about the event, the testimony of the inscriptions leave little doubt about a Guhila – Muslim conflict or at least the claims of independence set forth by the Guhila chiefs. The real threat to Mewar, however, came during the Khalji period.